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धमाका धर्म: कल्पसूत्र जैन धर्म का पवित्र ग्रंथ, सुनने वाले होते हैं भव सागर से पार: साध्वी नूतन प्रभाश्री जी

शनिवार, 16 सितंबर 2023

/ by Vipin Shukla Mama
पर्यूषण पर्व के चौथे दिन जैन साध्वियों ने अंतगढ़ सूत्र और कल्पसूत्र का किया वाचन
शिवपुरी। भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के लगभग 1000 वर्ष बाद आचार्य भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र जैन आगम ग्रंथों में सर्वाधिक उपकारी ग्रंथ है तथा इस पवित्र ग्रंथ को सुनने वाले भव सागर से पार हो जाते हैं। पर्यूषण पर्व के दौरान स्थानकवासी समाज में जहां अंतगढ़ सूत्र वहीं मंदिर मार्गी समाज में कल्पसूत्र के वाचन की परम्परा है। कल्पसूत्र से जैन संतों के आचार विचार की जानकारी मिलती है। संतों और साध्वियों को क्या कल्पता है और क्या नहीं? इसका पता चलता है। उक्त उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने आराधना भवन में पर्यूषण पर्व के चौथे दिन कल्पसूत्र का वाचन करते हुए व्यक्त किए। धर्मसभा में साध्वी पूनमश्री जी ने अंतगढ़ सूत्र का वाचन किया। गुरुणी मैया साध्वी रमणीक कुंवर जी ने बताया कि शास्त्रों का श्रवण श्रावक और श्राविकाओं को सिर ढककर करना चाहिए। आगमों के प्रति आदर व्यक्त कर हम जिनवाणी का सम्मान कर सकते हैं।
साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अंतगढ़ सूत्र और कल्पसूत्र के उपयोगी संदेश को भी इस अवसर पर स्पष्ट किया। उन्होंने अंतगढ़ सूत्र में भगवान कृष्ण के जीवन की घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताया कि जब वह राजमार्ग से गुजर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति ईंटों के ढेर में से एक-एक ईंट उठाकर मकान में रख रहा था। यह देखकर भगवान कृष्ण द्रवित हो उठे और उन्होंने रथ से उतरकर उस वृद्ध व्यक्ति की सहायता हेतु एक ईंट उठाकर मकान में रख दी। उनके यह करते ही भगवान श्रीकृष्ण के सैकड़ों अनुचर भी ईंट उठाने में जुट गए जिससे  पल भर में ही वह काम पूर्ण हो गया। इस उदाहरण से साध्वी जी ने स्पष्ट किया कि महापुरुष इसी तरह हमें हर व्यक्ति के सहयोग की प्रेरणा देते हैं। इससे यह भी प्रेरणा मिलती है कि कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता, सिर्फ मानसिकता छोटी बड़ी होती है। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि कल्पसूत्र में जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ भगवान और भगवान महावीर का जीवन चरित्र बताया गया है। इससे साधुओं के आचार विचार की भी जानकारी मिलती है। 2&वे तीर्थंकर और 24वे तीर्थंकर भगवान महावीर के समय साधु साध्वी श्वेत वस्त्र धारण करते थे। उस समय साधु साध्वी या तो जिन कल्पी होते थे या स्थविर कल्पी। जिन कल्पी जंगलों में निर्वस्त्र रहते थे और जब शहर में आते थे तो कोई ना कोई वस्त्र धारण करते थे। संतों के लिए राजा महाराजाओं का आहार भी नहीं कल्पता है। इससे आलस्य, रस उत्पत्ति और मोह बढ़ता है। उन्होंने कहा कि संत जीवन में धन, पद और प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं है। सिर्फ चारित्रिक पर्याय को प्राथमिकता मिलती है अर्थात् जिसने पहले दीक्षा ली है वह अन्य दूसरे साधुओं के लिए वंदनीय है। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि संतों को चातुर्मास के अलावा एक स्थान पर 29 दिन और साध्वियों को 58 दिन से अधिक नहीं ठहरना चाहिए। अंत में उन्होंने कहा कि साधु और साध्वी चाहे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय के हों उनका आदर करना चाहिए। धर्मसभा में साध्वी जयश्री जी ने सुंदर भजनों का गायन किया।17 को मनेगा आचार्य सम्राट शिवमुनि जी का जन्मदिवस
17 सितम्बर को आराधना भवन में आचार्य सम्राट शिवमुनि जी का जन्मदिवस प्रसिद्ध जैन साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज के निर्देशन में मनाया जाएगा। इस अवसर पर व्रत, उपवास और धर्म आराधना कर आचार्यश्री को जन्मदिवस की शुभकामनाएं दी जाएंगी। आचार्य सम्राट डॉ. शिवमुनि जी जैन श्रमण संघ के प्रमुख हैं। पंजाब के मलौट नामक छोटे से गांव में जन्मे शिवमुनि ने प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक की प्रत्येक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। छात्र जीवन के दौरान उन्होंने अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड आदि कई अन्य देशों की दूर-दूर तक यात्राएं कीं, लेकिन धन संपत्ति और भौतिक सुविधाएं उन्हें लुभाने और बांधने में विफल रहीं और उन्होंने सांसारिक जीवन त्याग कर एक तपस्वी का जीवन अपनाने का दृढ़ संकल्प लिया। वह आचार्य आत्माराम जी के शिष्य थे। जैन जगत स्वयं को भाग्यशाली मानता है कि उन्हें आध्यात्मिक नेता एक ऐसा व्यक्ति मिला है जो इतना प्रबुद्ध तपस्वी इतना सरल और ध्यान में समर्पित है।
ईश्वर की पूजा से बढ़कर होती है माता-पिता की सेवा : साध्वी नूतन प्रभाश्री जी
पर्यूषण पर्व के तीसरे दिन जैन साध्वियों ने बताए अंतगढ़ सूत्र के प्रेरक संदेश
शिवपुरी। जिस पर अपने माता-पिता का आशीर्वाद होता है। जो अपने माता-पिता की तन, मन, धन से सेवा करता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। माता-पिता में ईश्वर की छवि होती है और ईश्वर पूजा से बढ़कर माता-पिता की सेवा है। उक्त उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने आराधना भवन में पर्यूषण पर्व के तीसरे दिन धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। धर्मसभा में जैन शास्त्र अंतगढ़ सूत्र का वाचन साध्वी पूनमश्री जी ने किया और साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अंतगढ़ सूत्र के प्रेरक संदेश धर्मांवलंबियों को बताए। साध्वी जयश्री जी ने माँ के चरणों में स्वर्ग है हमारा... स्वर्ग है हमारा, तेरे आंचल में मिलता है हर दुख से किनारा... भजन का सुमधुर स्वर में गायन किया।
धर्मसभा में साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अंतगढ़ सूत्र के संदेश को स्पष्ट करते हुए कहा कि भगवान श्रीकृष्ण तीन खण्डों के अधिपति थे, लेकिन इसके बावजूद भी वह अपनी माँ देवकी की हर इच्छा पूरी करने को तत्पर रहते थे। उन्होंने बताया कि एक दिन जब वह अपनी माँ के दर्शन और वंदन करने के लिए गए तो उन्होंने उन्हें उदास देखा। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी माँ से पूछा कि उनकी उदासी का कारण क्या है? देवकी माँ ने कहा कि मैं भले ही सात-सात बच्चों की माँ हूं, लेकिन अपने बच्चों का बचपन और उनकी बाल लीलाएं मैंने नहीं देखी हैं। इस सुख से मैं वंचित हूं। भगवान श्रीकृष्ण भी उदास हो गए और वे पोषद शाला में गए और उन्होंने तीन दिन का व्रत किया तथा तीन दिन धर्म जागरण किया। इस पर हिरणगमेषी देव ने प्रकट होकर उनसे उनकी इच्छा पूछी और कहा कि तुम्हारा शीघ्र ही छोटा भाई होगा। इस तरह से बालक गजसुकुमाल का जन्म हुआ, लेकिन देवता ने पहले ही बता दिया था कि यौवन होते ही यह बालक दीक्षा लेगा, परंतु यह बात भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी को नहीं बताई। साध्वी जी ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने हमें संदेश दिया कि कब कहां बोलना और कब कहां चुप रहना। उन्होंने अपनी करनी से सिद्ध किया कि हमारे प्रथम उपकारी माता-पिता हैं। वह हमारे लिए वंदनीय और अनुकरणीय हैं। इस दुनिया में हमें लाने वाले हमारे माता-पिता ही हैं। उनके इस उपकार को हमें नहीं भूलना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के छोटे भाई गजसुकुमाल भगवान नैमीनाथ की वाणी सुनने के लिए गए और उन्होंने दीक्षा लेने का संकल्प लिया। श्मशान में जब वह साधनारत थे तो उनके पूर्व जन्म के बैरी ने उनके सिर पर अंगारे से भरा घड़ा कर दिया, लेकिन उस स्थिति में भी गजसुकुमाल क्षमाशील बने रहे। साध्वी जी ने बताया कि हमारे क्रोध पर ब्रेक लगाने का काम क्षमा करती है। उन्होंने अठ्ठम तप को पर्यूषण पर्व में चौथा कर्तव्य बताया और कहा कि पांचवां कर्तव्य चैत्र परिपाठी है जिसके संघ पूजा, साधार्मिक वात्सल्य, तीर्थ प्रभावना सहित 11 कर्तव्य हैं। उन्होंने कहा कि जैन दर्शन में संत से भी बड़ा संघ माना गया है और संघ की आज्ञा को शिरोधार्य करना चाहिए।















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