कार्यक्रम का शुभारम्भ ब्रह्मज्ञानी वेदपाठी साधकों द्वारा उच्चारित मधुर एवं दिव्य वेद मंत्रों से हुआ, जिससे वातावरण में पवित्रता और दिव्यता का संचार हुआ। इन स्पंदित हुई शांतिमय तरंगों ने ऐसा वातावरण निर्मितकिया जहाँ प्रस्तुत किए गए विचारों को उपस्थित हृदयों ने सुना और अंतरात्मा ने आत्मसात किया।
इस कार्यक्रम में प्रचारक शिष्यों द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रखर आध्यात्मिक विचार केवल प्रवचन नहीं थे, अपितु गुरु की इच्छा की प्रतिध्वनि थे जिनको इन प्रचारक शिष्यों ने स्वयं के जीवन में अनुभव किया है और जो भक्तों को धर्ममय आचरण, निष्काम सेवा और आत्म-ज्ञान के सनातन मार्ग पर अडिगता प्रदान करते हैं।
प्रवक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि आज का मानव केवल बाह्य संघर्षों से नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और स्पष्टता के अभाव से भी जूझ रहा है। मानवता उस दौड़ में भाग रही है जिसका कोई अंत नहीं है और विडम्बनावश भौतिकता में शांति खोजते-खोजते सत्य से और दूर हो रही है। ऐसे समय में केवल एक सच्चा गुरु ही साधक को उस अनंत आनंद के स्रोत, अंतर्स्थित परमात्मा की ओर ले जा सकता है।
महाभारत का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया गया कि कैसे महाबली अर्जुन भी युद्धभूमि में भ्रम और थकान से ग्रस्त थे, जब तक कि श्रीकृष्ण ने उन्हें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर दिव्य दृष्टि नहीं दी। वही रूपांतरण प्रत्येक आत्मा के लिए आज भी संभव है, जहाँ दिव्य गुरु श्री आशुतोष महाराज जी की कृपा से, सच्चे जिज्ञासुओं को ब्रह्मज्ञान प्रदान किया जाता है।
डीजेजेएस प्रतिनिधियों ने स्पष्ट किया कि ब्रह्मज्ञान कोई सैद्धांतिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक अनुभूति है, जो आत्मा को नकारात्मकता पर विजय प्राप्त करने, कर्तव्यों को आसक्ति रहित भाव से निभाने और साहसपूर्वक सत्य के मार्ग पर चलने के लिए सुसज्जित करती है।
भक्ति गीतों की संगीतमय प्रस्तुति के माध्यम से श्रद्धालु समर्पण और एकात्मता की भावभूमि में पहुँच गए। गाया गया प्रत्येक स्वर दिव्यता का आह्वान था और प्रत्येक श्रोता अपने स्रोत की ओर आत्मिक यात्रा की दिव्य स्वरलहरी में सहचर बन गया।
सत्र का समापन सामूहिक ध्यान के साथ हुआ, जहाँ हज़ारों श्रद्धालु पूर्ण निःशब्दता में बैठकर भीतर की ओर केंद्रित हुए और अपने भीतर दिव्य उपस्थिति को जागृत होते अनुभव किया। यह मौन का क्षण था परन्तु उससे कहीं अधिक, यह आत्मिक क्रांति का क्षण था।
कार्यक्रम के अंत में एक नवीन प्रेरणा और समर्पण का भाव समूचे परिसर में व्याप्त हो गया। भक्त अपने हृदयों में संतोष और आत्मिक प्रसन्नता के साथ लौटे, पर साथ ही यह संकल्प लेकर कि वे अपने सतगुरु के उपदेशों के अनुसार जीवन जिएंगे, समाज की सेवा करेंगे और आध्यात्मिक मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसर रहेंगे।

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