@डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
मत हवाओं में घोलो जहर दोस्तो,
पंख फैला रहीं, उड़ने को तितलियां,
खोलने दो इन्हें अपने पर दोस्तो।
रात काली थी लेकिन नहीं कुछ था डर
भोर की आस थी तो सबेरा हुआ।
पर चहकती महकती हुई न सुबह
ना ही किरणों का पथ ही सुनहरा हुआ।
पंछी व्याकुल हैं बेबस हैं, घबरा रहे
भोर में लग रहा तम पहर दोस्तो।
तिनके तिनके जुटाकर बनाया था घर
आंधियों से बचाया तो धरती हिली।
प्यार के बोल सुनने तरसता रहा
हर तरफ स्वार्थ की तेज लपटें मिली।
जल गये आग में आस विश्वास कण
भावनाएं गयीं सबकी मर दोस्तो।
प्रेम के ये घरोंदे गिराते रहे,
रेत के ऊंचे महलों पे इतरा रहे।
इसलिए हर दिशाओं में आकाश की
रक्त के,मांस के कतरे छितरा रहे।
तोड़ कर विष की थैली करो बस में अब
वरना होगी दवा बेअसर दोस्तो।

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