शिवपुरी। भगवान महावीर ने निंदा करने को भी एक पाप बताया है। उनका उपदेश है कि निंदा करना है तो अपने दुर्गुणों की करो और प्रशंसा दूसरों के सदगुणों की करो। उक्त उदगार व्यक्त करते हुए प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने कमला भवन में सोमवार को आयोजित धर्मसभा में कहा कि पर परिवाद पाप (दूसरों की निंदा करना) को हम आनंद के साथ करते हैं। उन्होंने बताया कि निंदा करना और निंदा श्रवण करना दोनों पाप हैं और इन पापों को करने का फल हमें भोगना पड़ता है। साध्वी वंदनाश्री जी ने श्रावक के 21 गुणों की चर्चा करते हुए आज बताया कि श्रावक को दयावान होना चाहिए। उसके हृदय में स्नेह, प्रेम, वात्सल्य और करुणा का झरना बहना चाहिए। दूसरों के दुख से जो द्रवित होता है वहीं सच्चा श्रावक है। धर्मसभा में आज पुणे महाराष्ट्र से श्रावक और श्राविका महाराजश्री के दर्शन, वंदन और उपदेश सुनने के लिए पधारे, जिनका जैन श्रीसंघ द्वारा स्वागत, वंदन और अभिनंदन किया गया।
धर्मसभा के प्रारंभ में साध्वी जयश्री जी ने सुंदर भजन का गायन किया। इसके बाद साध्वी वंदनाश्री जी ने 18 पापों की व्याख्या करते हुए आज पर परिवाद, रति अरति और माया मृषावाद पाप को विस्तार से बताया और इससे दूर रहने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि हम जाने अनजाने में वह कर्म करते हैं जिससे दूर रहने का भगवान महावीर ने उपदेश दिया था। उन्होंने बताया कि भगवान महावीर जब भी प्रवचन देते थे तो सबसे पहले नमो तीर्थस्य कहते थे। उन्होंने बताया था कि साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका को चतुर्विघ संघ कहा जाता है और चतुर्विघ संघ को उन्होंने तीर्थ कहा है, लेकिन हम साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की निंदा करते हैं। उन्होंने कहा कि संघ का प्रत्येक सदस्य वंदनीय है, लेकिन हमारा अहंकार इतना प्रबल है कि एक दूसरे से लड़ते और झगड़ते हैं। इससे ही समाज में विघटन की स्थिति निर्मित हो रही है। भगवान महावीर जिस संघ को नमस्कार करते हैं आप उसी संघ के सदस्य की निंदा कर एक मायने में भगवान महावीर का ही अपमान कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि निंदा एक ऐसा पाप है जो अन्य पापों को भी आमंत्रित करता है इसलिए निंदा से मुक्त रहकर आप अन्य पापों से बच सकते हैं। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने इसके बाद रति अरति पाप की चर्चा करते हुए कहा कि धर्म में अरुचि और पाप में रुचि या रस लेना। उन्होंने कहा कि धर्म हमारे जीवन का अंग होना चाहिए, लेकिन हो उल्टा रहा है पाप हमारे जीवन का अंग बन गया है। इसके बाद उन्होंने माया मृषावाद पाप के बारे में बताते हुए कहा कि अर्थात् कपट सहित जो झूठ बोला जाए उसे माया मृषावाद पाप कहते हैं। जीवन को सुंदर और अनुकरणीय बनाना है तो हमें पापों से अपने आपको मुक्त करना चाहिए। धर्मसभा को साध्वी रमणीक कुंवर जी ने भी संबोधित किया।

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