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धमाका खास खबर: "गुरु गोबिंद सिंह की जयंती पर विशेष", "भक्ति और शक्ति के संगम "“संत सिपाही“ "गोविंद सिंह"

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

/ by Vipin Shukla Mama
*डॉ. केशव पाण्डेय* 
गुरु गोबिंद सिंह को सिखों के 10वें एवं आखिरी गुरु के तौर पर जाना जाता है। शौर्य, साहस, पराक्रम और वीरता के प्रतीक गुरु गोबिंद सिंह ने सिखों को पंच ककार धारण कराया। सिखों के पवित्र ग्रंथ आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया और उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। वे  शूरवीर और तेजस्वी थे। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की। मुगलों के जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई और ‘सत श्री अकाल’ का नारा लगाया। गुरु जी ने कमज़ोरों को वीर और बहादुरों को सिंह बना दिया था। आज जयंती पर करते हैं उनका पुण्य स्मरण। 
--- गुरु गोबिंद सिंह जी की बुधवार को जयंती है। महान संत गुरु गोबिंद सिंह का जन्म पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि (22 दिसंबर 1666) को बिहार की राजधानी पटना में हुआ था। गुरु गोबिंद सिंह सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर के पुत्र थे। माता का नाम गुजरी था। इन्होंने सिख धर्म के लिए बहुत ही महान काम किए। पांच ककार केश, कृपाण, कंघा, कड़ा और कच्छा का संकल्प दिया। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था वहीं पर अब तखत श्री हरमिंदर जी पटना साहिब स्थित है। गोबिंद सिंह बचपन से ही स्वाभिमानी व वीर थे। घोड़े की सवारी लेना, हथियार पकड़ना, मित्रों की दो टोलियां को एकत्रित करके युद्ध करना और शत्रु को हराने के लिए खेलना उनके खेल में शामिल थे। 
1670 में उनका परिवार पंजाब आ गया। मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर रहने लगा। चक्क नानकी ही वर्तमान में आनन्दपुर साहिब कहलाता है। यहीं पर इनकी शिक्षा आरंभ हुई। उनकी बुद्धि काफी तेज थी। 
कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर गुरु तेग बहादुर जी आगे आये। उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी नौ साल के थे। कश्मीरी पंडितों की फरियाद सुन उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवंबर 1675 को औरंगज़ेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। 
इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को गोबिंद सिंह सिखों के 10वें गुरु घोषित हुए। 10वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। उन्होंने बहुत ही सरलता से हिन्दी, संस्कृत व फारसी का पर्याप्त ज्ञान हासिल किया था। शिक्षा के अन्तर्गत उन्होनें लिखने-पढ़ने के साथ ही घुड़-सवारी तथा योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। 1684 में उन्हांने “चण्डी दी वार“ की रचना की।
गोविंद राय नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविंद जी शान्ति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
पिता की मृत्यु के बाद महज नौ साल की उम्र में इन्होंने मानव कल्याण के जिम्मेदारी संभाली और गुरु की गद्दी पर बैठे। सिख समुदाय के इतिहास में उनका नेतृत्व बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया। सिख समुदाय की एक सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा कि “कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है“? उसी समय एक स्वयं सेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में थी। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह पांचों जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया। जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया।  इधर 27 दिसंबर सन 1704 जुल्मियों उनके दोनों छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह व फतेह सिंह को दीवारों में चुनवा दिया। जब यह वाक्या गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
8 मई 1705 में ’मुक्तसर’ नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे।
इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरु गोबिंद सिंह जी नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों पर जीत प्राप्त की।
गुरु की याद में हर साल इस दिन देशभर में गुरुद्वारों को सजाया जाता है। लोग गुरुद्वारे में मत्था टेक कर अरदास, भजन, कीर्तन करते हैं। नानक वाणी पढ़ी जाती है और दान पुण्य आदि लोक कल्याण के अनेक कार्य किए जाते हैं। महाप्रसाद के रूप में लंगर छके जाते हैं।
विचित्र नाटक अकाल उसत्त, चण्डी दी वार उनकी आत्मकथा हैं। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग हैं। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। उन्होंने जुल्म और पापों का खत्म करने के लिए और गरीबों की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े।  सभी युद्धों में विजय प्राप्त की। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें ’सरबंसदानी’ भी कहा जाता है। जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले जैसे कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। उनके इस बलिदान को याद करने के लिए हर साल गुरु गोबिंद सिंह जयंती मनाया जाता है।
धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग :  गुरु गोविंद सिंह जहाँ विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ’संत सिपाही’ भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं- भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। तभी तो कहा जाता है....
सतगुरु सब दे काज संवारे, गुरु गोबिंद तुम हो प्राण प्यारे, तुम बिन मुझे जग से कौन तार, आप ही हैं वो जो लोगों को, करा दें खुशियों के वारे न्यारे..

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