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#धमाका_न्यूज: दिव्यांग बच्चे: तीन विभाग, तीन तरह के बजट औऱ नियमावली, दयनीय हालात में शिक्षा विभाग के हॉस्टल्स

शनिवार, 10 अगस्त 2024

/ by Vipin Shukla Mama
(विशेष प्रतिनिधि)
मध्यप्रदेश में शिक्षा विभाग द्वारा दिव्यांग बच्चों के लिए चलाए जाने वाले सरकारी हॉस्टल अफसरों की सनक के शिकार हैं।अव्वल तो प्रदेश में दिव्यांग जन सशक्तिकरण विभाग अलग से बना हुआ है लेकिन शिक्षा विभाग अपने अधीन 52 जिलों में सीडब्ल्यूएसएन (चाइल्ड विद स्पेशल नीड) हॉस्टल चला रहा है।इन आवासीय हॉस्टल के संचालन की नियमावली अंतर्विरोधो से भरी हुई है।विभाग के पास इन बच्चों के लिए न तो विशेषज्ञ पूल है न मैदानी स्तर पर दक्ष स्टाफ इसके बाबजूद अफसरों की सनक के कारण इन हॉस्टल्स का संचालन सामाजिक न्याय एवं दिव्यांग कल्याण विभाग की जगह शिक्षा विभाग कर रहा है।महिला बाल विकास भी ऐसे बच्चों के लिए बाल गृह संचालित करता है।सामाजिक न्याय विभाग के हॉस्टल पहले से प्रदेश में मौजूद हैं।तीनों महकमों में कोई समन्वय नही है न नीतियों में समानता।
प्रदेश के सभी पुराने जिलों में जिला मुख्यालय पर सरकारी भवनों में सीडब्ल्यूएसएन हॉस्टल्स का संचालन किया जा रहा है।राज्य शिक्षा केन्द्र इनकी नियामकीय संस्था है। प्रदेश के 12 अलग अलग जिलों में इन हॉस्टल्स के संचालन का मैदानी स्तर पर जायजा लिया तो सभी जगह हालात दयनीय दिखाई दिए।
संचालन की प्रमुख विसंगतियां
-अधिकतर जिलों में एनजीओ इनका संचालन कर रहे हैं।इन एनजीओ को केवल एक सत्र के लिए जिला कलेक्टर की अध्यक्षता वाली समिति चयनित करती हैं।अगले सत्र में उसी संस्था को चयनित किया जाएगा या नही इसकी कोई गारंटी नही रहती है।इसलिए अधिकतर संस्थान समर्पित होकर इस कार्य को नही कर पाते।
-प्रदेश में ग्वालियर, रीवा, इंदौर के कुछ दिव्यांग लोगों ने मिलकर जेबी एनजीओ बना लिए है जिनके पास न संसाधन है न विशेषज्ञ न समझ। इस रैकिट ने अलग अलग नाम से कई जगह हॉस्टल्स ले रखें हैं।
-50 सीटर हॉस्टल्स में एक बच्चे के लिए महीने के भोजन, चाय, नाश्ता, तेल, साबुन, टूथपेस्ट जैसी आवश्यकताओं के लिए महज 1500 रूपए का प्रावधान है यानी 50 रुपये रोज।
-बच्चों के लिए वार्डन की वेतन महज 10 हजार रुपए है।इसी तरह पूर्ण कालिक सहायक वार्डन का वेतन भी मात्र साढ़े सात हजार है।तीनों शिक्षकों को स्पेशल एजुकेशन में बीएड होने के सात राष्ट्रीय विकलांग संस्थान में पंजीकृत होना अनिवार्य है।नीति बनाने वाले अफसर यह भूल रहे है कि सामान्य बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों की वेतन मप्र में  इन विशेष शिक्षकों से तीन गुनी से ज्यादा है।
नतीजतन प्रदेश के अधिकतर हॉस्टल्स में अच्छे वार्डन औऱ शिक्षक उपलब्ध ही नही हैं।
-दो केयर गिवर्स के साथ रसोइया,औऱ चौकीदार की वेतन महज 7 हजार मासिक है
-औसतन एक हॉस्टल के लिए सरकार 17 लाख सालाना खर्च करती है जिसके हिसाब से एक दिव्यांग पर एक सत्र में महज 34 हजार का खर्च आता है।दूसरी तरफ महिला बाल विकास इसी क्षमता के बाल गृह पर सालाना 54 लाख का बजट खर्च करता है जहां अनाथ बच्चों को रखा जाता है।खास बात यह कि महिला बाल विकास के इन ग्रहों में दिव्यांग नही सामान्य बच्चों को रखा जाता है।
- इन हॉस्टल्स में काम करने के लिए अधिकतर जगह उप्र, राजस्थान से दिव्यांग शिक्षक ही काम करने मप्र में आते है और एक दो साल अनुभव लेकर अच्छे संस्थानों में ऊंचे वेतन पर चले जाते हैं।
-खास बात यह है कि प्रदेश के सभी हॉस्टल में 90 फीसदी दिव्यांग बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से आकर प्रवेश लेते हैं और लगभग 90 फीसदी ही अनुसूचित जाति, जनजाति औऱ अन्य पिछड़े वर्ग से आते हैं।
-कम वेतन और बजट के कारण इन हॉस्टल्स में इन बच्चों के सशक्तिकरण का सपना सपना ही बना हुआ है।
०एक ही विभाग चलाये सभी संस्थान
जब मप्र औऱ केंद्र में अलग से दिव्यांगों के लिए मंत्रालय और विभाग बने हैं तब शिक्षा विभाग,महिला बाल विकास औऱ शिक्षा विभाग अलग अलग दिव्यांग बच्चों के लिए क्यों काम कर रहे है?बेहतर हो दिव्यांग जनों के लिए सामाजिक न्याय और दिव्यांग सशक्तिकरण विभाग ही सभी योजनाओं का संचालन करे।महिला बाल विकास भी कई जिलों में दस बच्चों की क्षमता वाले  बाल गृह चलाता है।सरकार को नीतिगत स्तर पर इस विसंगति को समाप्त करने की पहल करना चाहिए।
बजट का एक जगह कन्वर्जन हो
केंद्र सरकार के शिक्षा ,महिला बाल विकास एवं सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा दिव्यांग बच्चों के लिए बजट जारी किया जाता है।प्रदेश के तीनों महकमे इस बजट को अलग अलग नियम बनाकर खर्च कर रहे हैं।बेहतर होगा बजट एक ही जगह से एक ही महकमें के माध्यम से खर्च हो ताकि अंतर्विरोध समाप्त होकर दिव्यांग बच्चों का वास्तविक कल्याण संभव हो सके।











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