यह किस्सा मैंने कहीं पढ़ा था-कभी किसी ने महाकवि केशवदास से पूछा-आपकी दृष्टि में इस युग का सबसे बड़ा और महान कवि कौन है? महाकवि केशवदास ने उत्तर दिया-निश्चित रूप से मैं। मैं ही हूं इस समय का सबसे बड़ा कवि? प्रश्नकर्ता ने उनसे पुनः पूछा तब महाकवि तुलसीदास और सूरदास को लेकर आप क्या कहेंगे। महाकवि केशव ने उत्तर दिया। वे संत हैं। कविता नहीं मंत्र लिखते हैं। उनका एक-एक शब्द मंत्र है। उनकी बराबरी मैं नहीं कर सकता, पर आपने पूछा है कि सबसे बड़ा कवि कौन है? तो वह निर्विवाद रूप से मैं ही हूं। हिन्दी साहित्य में कठिन काव्य के प्रेत के रूप में विख्यात महाकवि केशवदास को भी उनके समकालिकों ने तारे से अधिक मान्यता नहीं दी है-
सूर सूर तुलसी शशि, उड्गन केशवदास,
अब के कवि खद्योतसम, जहां-तहां करत प्रकाश।
या
सूर शशि, तुलसी रवी, उड्गन केशवदास,
अब के कवि खद्योतसम, जहां-तहां करत प्रकाश।
(उड्गन-तारे, खद्योत-जुगनू)
इन दोनों दोहों में सूर और तुलसी जैसे कवियों को अपने समय का सूर्य और चन्द्रमा कहा गया है। केशवदास तारे हैं तो शेष सभी कवि खद्योतसम अर्थात जुगनू के समान है। आज की नई पीढ़ी ने भले ही जुगनू न देखे हों पर मेरी पीढ़ी के उन रचनाकारों ने जिनका लालन-पालन गांवों अथवा छोटे शहरों में हुआ है, उन्होंने अवश्य जुगनू देखे होंगे। अंधेरी रात में किसी विशाल वट वृक्ष पर जगमगाते और झिलमिलाते जुगनू ऐसे लगते थे जैसे किसी ने पेड़ पर हजारों झिलमिलाती बिजली के छोटे-छोटे जलते-बुझते बल्वों की झालर लटका दी हो। मैं सबकी बात नहीं करता किंतु प्रत्येक नगर और महानगर में मेरे जैसे अनेक जलते बुझते जुगनू जैसे कवि है। जिनका भविष्य भी मुझे पता है। मैं जिस नगर शिवपुरी से आता हूं वहां भी मेरे देखते-देखते अनेक कवि अपनी प्रतिभा के साथ अपनी अंतिम चिता में हमेशा के लिए विलुप्त हो गए। वे जो अखिल-भारतीय मंचों पर छा जाते थे। राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। जिनकी एक या दो नहीं-तीस-तीस, चालीस-चालीस पुस्तकें प्रकाशित हुई। आज उनका भी नाम लेने वाला कोई नहीं है। कबीर की तरह -
हम न मरहि, मरि है संसारा, हमको मिला जिवावन हारा।
कहने का साहस तो मात्र कबीर के पास ही है। हमें पता है-हमारी मृत्यू सुनिश्चित है। जिन्हें अपने साहित्य लेखन के द्वारा अमर हो जाने की भ्रांति है वे ऐसा सोचने के लिए स्वतंत्र है। उन्हें साहित्य में राजनीति शोभा देती है। वे अपने आप को स्थापित करने के लिए ऐढ़ी से चोटी तक का जोर लगा सकते हैं। वे गुट बना सकते हैं। अपने आप को स्वंभू घोषित कर सकते हैं। अपने नाम से साहित्य में एक नया आंदोलन खड़ा कर सकते हैं। एक नया वाद प्रारम्भ कर सकते हैं। हिन्दी में पहले भी प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, अकविता, नई कविता, प्रपद्यवादी कविता, नव-गीत, नकेनवादी कविता न जाने कितने वाद खड़े किए गए और वे कुछ समय के उपरांत किसी सरोवर की सतह पर उभरे हुए बुलबुले की तरह नष्ट भी हो गए। अपने आप को स्थापित करने के लिए अब भी प्रयास हो रहे हैं। पुरस्कार और सम्मान पाने के लिए हमारे साहित्यकारों की जो स्थिति है, वह किसी से छिपी हुई नहीं है।
मजेदार बात हैं -हिंदी साहित्य का पहला इतिहास किसी भारतीय ने नहीं लिखा था। ये एक फ्रेंच साहित्यकार थे। नाम था गाार्सैं द तासी। आपने ‘‘इस्त्वार द ला लितेरात्यूर ऐंदूई ऐं ऐंदुस्तानी‘‘ ग्रंथ का प्रकाशन सन 1839 में किया गया था। यह ग्रंथ हिन्दी साहित्य के इतिहास से संबंधित था इसमें अंग्रेजी वर्णक्रम में हिन्दू और मुसलिम रचनाकार दोनों को एक साथ शामिल किया गया था। ग्रंथकार ने हिन्दी भाषा के अंतर्गत उर्दू को भी सम्मिलित किया है जो वास्तव में भाषा की दृष्टि से उचित है। लेकिन सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत अंग्रेजों ने उर्दू को हिन्दी से अलग करके हिन्दी को हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया। डॉ रामचन्द्र शुक्ल, डॉ नगेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे नाम बहुत बाद में आते हैं। हिंदी साहित्य के इतिहासकारों के बात करने से पूर्व हिंदी भाषा की शब्दावली की बात कर लेते हैं।
मैं मानता हूं और अच्छी तरह जानता हूं कि दुनियां की कोई भी भाषा एक दम विषुद्ध नहीं होती है। उसमें मिलावट होती है। हिन्दी में भी तत्सम शब्द हैं जो सीधे संस्कृत से अपने मूल स्वरूप में आये हैं। तद्भव है-संस्कृत के शब्दों का बदला हुआ स्वरूप, देशज है, और लाखों विदेशी शब्द भी हैं। इनमें अंग्रेजी, अरबी, फारसी, अफगानी, पश्तो, तमिल, तेलगू , मलयालम, मराठी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी आदि अनेक भाषाओं से हैं। और मैं स्वंय लोहिया के उन विचारों से सहमत हूं जो विदेशी भाषा के शब्दों को उनके मूल स्वरूप में उपयोग की वकालत करते हैं। जो रेल को रेल ही स्वीकारने का मत रखते हैं, उसे लोहपथ गामनी कह कर उपहास का पात्र नहीं बनाते हैं।
हिन्दी दिवस के अवसर पर मैं हिन्दी उर्दू के किसी विवाद में न पड़ते हुए मात्र इतना कहना चाहूंगा कि हम जैसे बहुत छोटे रचनाकार भी अपने सामर्थ और शक्ति के अनुसार हिन्दी की सेवा कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य आकाश पर अनेक पक्षी हैं, उनमें से एक हम भी हैं। सभी अपनी-अपनी सामर्थ और शक्ति के अनुसार उड़ान भर रहे हैं। कोई बाज की तरह बहुत ऊंचे आकाश पर है तो कोई मध्य में तो कोई ऐसा भी है जिसके पैर धरती से अधिक ऊंचाई पर नहीं गए। जिनके पंखों में उड़ने का सामर्थ नहीं है। फिर भी वे प्रयास करते है। अपने पंख उड़ान भरने के लिए फड़फड़ाते है। भगवान राम के सेतु बंध में नन्हीं गिलहरी की तरह हमारे जैसे तुच्छ रचनाकारों का भले ही कोई बहुत बड़ा योगदान न हो, पर एक प्रयास तो है। हमारी कोई बहुत बड़ी पहचान भले ही न हो पर यह क्या कम है कि हम हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और हिन्दी को विश्व-पटल पर विश्व-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का सपना देख रहे हैं। हम अब के कवि खद्योत सम ही हैं। पर प्रयास अपने प्रकाश से हिन्दी को प्रकाशित करने का ही है। यह कोई छोटी बात नहीं यह जानते हुए भी कि
कीर्ति ख्याति कब तक अरुण, इसका है आभास,
जब तक जलता दीप है, तब तक रहे प्रकाश।
अरुण अपेक्षित
इंदौर मध्य प्रदेश

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