एक और दास्तान पढ़िए प्रोफेसर सिकरवार की ही कलम से...
आज भी आई.एम.ए. देहरादून (इण्डियन मिलिट्री एकेडमी देहरादून) में हर शाम 08 बजे कैप्टन विक्रम बत्रा मैस में शांति छा जाती है. दिन भर के थके हुए कैडेट्स अपनी सीट पर बैठे होते हैं, उनके सामने उनकी प्लेट्स रखी होती हैं, लेकिन किसी की कोई हरकत, कोई प्रतिक्रिया नही होती है. मैस के बीचों-बीच में कैप्टन विक्रम बत्रा की सीट है, भोजन पहले उन्हें परोसा जाता है, उसके बाद ही कैडेट्स भोजन को हाथ लगाते हैं. हर बुधवार शाम 07 बजे कैप्टन विक्रम बत्रा चंडीगढ़ फोन किया करते थे, उनकी मंगेतर डिंपल को. कारगिल की जंग के बाद उनका विवाह तय था. लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था. कैप्टन विक्रम बत्रा की यादों को मन में समेटे डिंपल आज भी अविवाहित हैं. कारगिल युद्ध में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विक्रम बत्रा का बलिदान हम सबकी यादों में है.
कैप्टन विक्रम बत्रा का सिलेक्शन मर्चेंट नेवी में हांगकांग की एक शिपिंग कंपनी में हुआ था. ट्रेनिंग के लिए उन्हें कॉल लेटर भी आ चुका था. मर्चेंट नेवी के लाखों के पैकेज को छोड़कर उन्होंने देश के लिए जीने और मरने के संकल्प के साथ 1995 में आई.एम.ए. की परीक्षा पास की थी. एक दिन दोस्तों के साथ बैठे कैप्टन विक्रम बत्रा ने बातों बातों में कहा था - '' मैं विजयी होकर तिरंगा लहराकर आऊँगा, या फिर तिरंगे में लिपटकर आऊँगा, लेकिन चिंता मत करो आऊँगा जरूर." कैप्टन विक्रम बत्रा ने बातों-बातों में दोस्तों से जो कहा था कारगिल की जंग में वो सच सिद्ध हुआ. वे 5140 की चोटी पर 'तिरंगा लहराकर' और फिर 4875 की चोटी पर 'तिरंगे में लिपटकर' अपने घर पालमपुर वापिस लौटे.
कारगिल युद्ध में दुश्मन को गोलियों से भून देने के बाद कैप्टन विक्रम बत्रा के मुँह से निकली पंचलाइन 'ये दिल मांगे मोर' भारत के सैन्य इतिहास की स्मृतियों में और कारगिल की वादियों में आज भी जिंदा है और हमेशा जिंदा रहेगी. मन को स्वाभिमान से भर देने वाले, ह्रदय को द्रवित कर देने वाले कारगिल युद्ध के समय के हमारे सैनिकों के अदम्य साहस, पराक्रम और शौर्य की ये कहानी जब-जब याद आती है हम सबकी आँखें नम होती हैं, दिल राष्ट्रप्रेम के जज्बातों से भरा होता है और मस्तक गर्व से ऊँचा होता है. आज कारगिल विजय दिवस पर कैप्टन विक्रम बत्रा के श्रेष्ठ बलिदान की इतिहास के पन्नों में दर्ज इन स्मृतियों को नमन करता हूँ.

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