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विशेष: विश्व पर्यावरण दिवस #कल्पवृक्ष, #कलयुग, #कोलारस

शुक्रवार, 4 जून 2021

/ by Vipin Shukla Mama
शिवपुरी। भारतीय सनातन संस्कृति में वृक्ष देवता हैं अर्थात् दाता (देने वाला)। इन पवित्र वृक्षों में कल्पवृक्ष का विशेष महत्व है और लोक मान्यता अनुसार संयोग से यह दुर्लभ वृक्ष मेरे ननिहाल कोलारस में अपनी विशाल शाखाओं के साथ अपने कल्याणकारी गुणों से परिपूर्ण  शीतल,मंद और सुगन्धित वायु प्रवाहित कर रहा है। हाँ! यह वही कल्पवृक्ष है जिसका सनातन ग्रंथों में वर्णन है। 
पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस वृक्ष में अपार सकारात्मक ऊर्जा जो होती है।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना 'सुरकानन वन' (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है।
कोलारस अपनी धार्मिक जीवन शैली व संस्कारों से  अपना परिचय स्वयं देता है। प्राचीन बुन्देली कलात्मक अट्टलिकाओं के मध्य नवीन भवनो के समूह, गली-गली में राधे-राधे व जयसियाराम का अभिवादन, अधिकांश घरों में रामचरित मानस की चौपाईयों का गान,मंदिरों से श्री हित हरिवंश जी  व महाप्रभु बल्लभाचार्य जी द्वारा रचित पदों के गायन की सुमधुर तान उसे लघु वृंदावन की पहचान दिलाती है। कोलारस, मध्यप्रदेश राज्य के शिवपुरी ज़िले में  गुंजारी नदी के तट पर स्थित नगर है और इस नदी के तट पर दक्षिण की ओर स्थित है लंकापुरा, जिसमें भाईजी के कुआँ पर स्थित बाग़ीचे में यह वृक्ष पल्लवित, पुष्पित और विस्तृत है। जितना दिव्य उतना भव्य। 
दिव्यता ऐसी की जितना निकट जाओ मन में उत्साह, मस्तिष्क में सकारात्मकता और श्वांसो में ताज़गी सहज आ जाती है। आध्यात्मिक लहरों का एक अलग समुंदर चारों ओर उमड़ घुमड़ आता है और भव्यता ऐसी कि तने का विस्तार द्वादश हाथों में न समा सके, शाखाओं का विस्तार भगवान के विराट रूप का दर्शन कराता है वहीं  निकट जाओ तो किसी विशालकाय हाथी का बोध होता  है। 
ओलिएसी कुल के इस वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ओलिया कस्पीडाटा है। यह यूरोप के फ्रांस व इटली में बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। यह दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी पाया जाता है। भारत में इसका वानस्पतिक नाम बंबोकेसी है। इसको फ्रांसीसी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने 1775 में अफ्रीका में सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नाम अडनसोनिया टेटा रखा गया। इसे बाओबाब भी कहते हैं।
इसका फूल कमल के फूल में रखी किसी छोटी- सी गेंद में निकले असंख्य रुओं की तरह होता है।
पीपल की तरह ही कम पानी में यह वृक्ष फलता-फूलता हैं। सदाबहार रहने वाले इस कल्पवृक्ष की पत्तियां बिरले ही गिरती हैं, हालांकि इसे पतझड़ी वृक्ष भी कहा गया है।
यह वृक्ष लगभग 70 फुट ऊंचा होता है और इसके तने का व्यास 35 फुट तक हो सकता है। 150 फुट तक इसके तने का घेरा नापा गया है। इस वृक्ष की औसत जीवन अवधि 2500-3000 साल है। कार्बन डेटिंग के जरिए सबसे पुराने फर्स्ट टाइमर की उम्र 6,000 साल आंकी गई है।
यह वृक्ष उत्तरप्रदेश के बाराबंकी के बोरोलिया में आज भी विद्यमान है। कार्बन डेटिंग से वैज्ञानिकों ने इसकी उम्र 5,000 वर्ष से भी अधिक की बताई है। कोलारस के इस  कल्पवृक्ष की आयु 2,000 वर्ष से अधिक की बताई जाती है। ऐसा ही एक वृक्ष राजस्थान में अजमेर के पास मांगलियावास में है और दूसरा पुट्टपर्थी के सत्य साईं बाबा के आश्रम में मौजूद है। अपने जीवनरक्षी, कल्याणमयी, आरोग्यदायी गुणों से परिपूर्ण होने के कारण यह सनातन संस्कृति में वंदनीय है महनीय है। 
अगली यात्रा में फिर चलेंगे  सनातन संस्कृति के शाश्वत रहस्यों को खोजने तब तक जय सियाराम 🙏
लेखक✍️नितिन कुमार शर्मा

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